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कविता

आँखें

शेषनाथ पांडेय


कुछ होता न होता
वे आँखें होतीं जिनको निहारा था स्वप्न में भी

बड़ी सुंदर आँखें थीं वे
नीली, पीली, कत्थई या कोई और रंग की

यह तो खास किस्म के कवि ही बताएँगे
मैं तो उन आँखों में बस डूबता चला जाता था

सब कुछ होता रहता
बस हमें घर से पहले लूटा न जाता
हम कुछ बोलते न बोलते
बस खोखली नेमत के लिए
चुप नहीं रहते एक दूसरे के इंतजार में
तब कुछ होता न होता
मेरी कथा का अंत
परीकथा की तरह सुखद होता

पता नहीं क्यों
कौन-सा सुख देने के लिए
हुलसने के लिए सुखों के साथ
उसका बाप किसी के बाप से गिड़गिड़ा रहा था
सजा रहा था उसके नयन-नक्श
बता रहा था
मेरी यह फूल पपनियों के झपकने में
पहाड़ सा कूड़े के ढेर को
लगा देती है ठिकाने
उगा लेती है मलय-गंध
घर के कोने-कोने में

जैसे भूलते हैं सब
उसका बाप शायद भूल गया था
फूल के साथ केवल खुशबू नहीं उगती
जैसे चने के साथ बथुआ
खुद-ब-खुद उग आता
कुछ वैसे ही फूल के साथ
माली नजर आता

उसकी भूल पर मुझे तरस आ रहा था

उतना ही नहीं जितना आता है सबको
उतना की मेरी नदी भी

सिसक-सिसक कर सूख रही थी
काश ! वह मुझसे पूछता
तो कह देता
कुछ होता न होता
अगर कहीं कोई होता
बस वे आँखें ही होतीं
जिनमें छुपा आया था अँजोरिया की ठंडई
और अपने सीने की आग को
और भी बहुत कुछ था उन आँखों में
जिसे बिन छेड़े कब से ही
बेतरतीब सरक रहा था

हुआ वही
सुख के घरौंदे में डाल दी गई
उसके सीने की आग निकाल ली गई
चुपके से ऋतुएँ रहने लगीं खामोश
इस खामोशी में बंद होने लगी थीं वे आँखें

झर-झर बरसात हुई थी जेठ में कई दिन
तड़प के रह गया था सावन का पूरा दिन
कल खबर आ ही गई
किसी के घर की वह लड़की
जो मेरी आँखों में सज गई थी
वही लड़की
किसी और घर में जल गई थी।


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